कभी टुरिंग टॉकीज का भी हुआ करता था अपना एक दौर
गांव-देहातों में तंबू लगाकर होता था फिल्मों का प्रदर्शन

* जत्रा व मेलो में सबसे मुख्य आकर्षण होती थी टुरिंग टॉकीजे
अमरावती/दि.1 – फिल्म सितारों को बडे परदे पर देखने का किसी जमाने में दर्शकों के बीच इस कदर आकर्षण हुआ करता था कि, गांव-देहात में रहनेवाले लोगबाग कई-कई किमी की यात्रा कर शहर आकर टॉकीजों में फिल्मे देखा करते थे. ऐसे में उस समय फिल्मों के वितरण व प्रदर्शन के व्यवसाय के साथ जुडे कई लोगों ने अपनी फिल्मों को गांव-देहातों में ले जाकर वहीं पर प्रदर्शित करने का काम शुरु किया था. जिसके चलते टुरिंग टॉकीज के व्यवसाय ने जन्म लिया था. जिसके तहत गांव-देहातों में तंबू लगाकर अस्थायी टॉकीज बनाई जाती थी. जिसमें प्रोजेक्टर पर फिल्मो की रील चलाते हुए परदे पर फिल्म दिखाई जाती थी और ऐसी टुरिंग टॉकीजों के शो भी हाऊस फुल चला करते थे. क्योंकि जिस गांव में टुरिंग टॉकीज लगती थी, वहां पर आसपास के अन्य गांवों के लोग भी आकर फिल्मे देखा करते थे. परंतु जैसे-जैसे फिल्मों के प्रति दर्शकों का क्रेझ खत्म होना शुरु हुआ और मनोरंजन के अन्य साधन उपलब्ध होते चले गए, वैसे-वैसे जहां एक ओर शहरों में स्थित आलिशान टॉकीजे बंद होनी शुरु हो गई. वहीं दूसरी ओर अब टुरिंग टॉकीज का दौर गुजरे जमाने की बात हो गई है.
यहां पर यह कहना कतई अतिशयोक्ति नहीं होगा कि, भारत में आज से करीब 100 साल पहले जब पहली बार चलचित्रों यानि फिल्मों का निर्माण होना शुरु हुआ था, तब देश में कहीं पर भी कोई टॉकीज नहीं हुआ करती थी और उस वक्त फिल्म निर्माताओं द्वारा अपने स्तर पर ही गांव-गांव घुमकर अपनी फिल्मों का टुरिंग टॉकीजों के जरिए प्रदर्शन किया जाता था. उस जमाने में फिल्म निर्माताओं के प्रतिनिधि फिल्मो की प्रिंट को बैलगाडियों पर लादकर पूरे साजोसामान सहित गांव-गांव घुमते थे और एक के बाद एक अलग-अलग गांवों में अपना तंबू लगाते हुए वहां पर फिल्मों को प्रदर्शित किया जाता था. भारतीय फिल्म जगत के भीष्म पितामह कहे जाते दादासाहेब फालके द्वारा निर्मित ‘राजा हरिश्चंद्र’ नामक भारत की पहली मूक फिल्म के साथ भारत में फिल्मों के प्रदर्शन का सिलसिला शुरु हुआ, जो भारत की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ से आगे बढते हुए ब्लैक एंड वाईट, ईस्टमन कलर और कलर फिल्मों तक पहुंचा. जैसे-जैसे फिल्म व्यवसाय ने आगे गति पकडी वैसे-वैसे इस व्यवसाय के साथ वितरक व प्रदर्शक जैसे घटक भी जुडते चले गए और फिल्मो के प्रदर्शन हेतु एक से बढकर एक सर्व सुविधायुक्त टॉकीजों का निर्माण हुआ. लेकिन शुरुआती दौर में अधिकांश फिल्मों का प्रदर्शन टुरिंग टॉकीजों में ही हुआ करता था और आगे चलकर भी लंबे समय तक टुरिंग टॉकीजो ने गांव-देहातों तक फिल्मों को दर्शकों के बीच पहुंचाने का काम करते हुए अपना अस्तित्व बचाए रखा था. परंतु आधुनिकता की दौड में अब टुरिंग टॉकीजे काफी पीछे छूट गई है और उनका अस्तित्व लगभग खत्म हो चुका है.
उल्लेखनीय है कि, किसी समय जिले के ग्रामीण इलाकों में विविध स्थानों पर चलनेवाले यात्रा एवं मेला जैसे आयोजनों में टुरिंग टॉकीज ही सबसे मुख्य आकर्षण का केंद्र हुआ करती थी. करीब एक से डेढ माह तक चलनेवाली बहिरम बाबा की यात्रा में लगनेवाले तमाशा के फड के साथ-साथ टुरिंग टॉकीजे भी जमकर भीड को अपनी ओर खींचा करती थी. इसके साथ ही सालबर्डी, ऋणमोचन व कौंडण्यपुर की यात्रा में भी टुरिंग टॉकीजों का अपना एक अलग जलवा हुआ करता था. परंतु बदलते वक्त के साथ-साथ अब गांव-देहातों के साथ ही ऐसे मेलों व जत्रा से भी टुरिंग टॉकीजे लगभग गायब हो गई है.

फिल्मों के वितरण व प्रदर्शन के व्यवसाय के साथ जुडे मोहन चित्र के संचालक कमलकिशोर कासट एवं खजांची फिल्मस् के संचालक भरत खजांची ने उस पुराने दौर को याद करते हुए बताया कि, उस दौर में अमरावती शहर सहित जिले में करीब 25 से 30 टुरिंग टॉकीज ऑपरेटर हुआ करते थे, जो फिल्मों के वितरकों से अलग-अलग फिल्मों के प्रिंट कुछ तय समय के लिए किराए पर लिया करते थे और उन फिल्मों का गांव- गांव में अपनी टुरिंग टॉकीजे लगाकर प्रदर्शन किया करते थे. चूंकि उस जमाने में एक से बढकर एक फिल्मी सितारों को बडे परदे पर देखने का दर्शकों में जबरदस्त क्रेझ हुआ करता था. ऐसे में उन फिल्मी सितारों की फिल्मों की टुरिंग टॉकीजो में जमकर मांग हुआ करती थी. उस समय अमरावती के ग्रामीण इलाको में लगभग 25 टुरिंग टॉकीजे थी और उन टुरिंग टॉकीजों में 500 से 700 लोगों की बैठने की व्यवस्था रहती थी. ये टुरिंग टॉकीजे जहां पर भी बडे उत्सव, मेले, धार्मिक यात्राएं रहती थी, वहां अपना बसेरा जमाती थी. जैसे बहिरम यात्रा, कौंडण्यपुर यात्रा, महाशिवरात्री की सालबर्डी यात्रा, ऋणमोचन यात्रा में यह टुरिंग टॉकीजे रहती थी. इसके साथ ही यात्रा के अलावा अन्य समय पर इन टुरिंग टॉकीजों द्वारा अलग-अलग गांवों में अपना पडाव डाला जाता था.
* खुले आसमान के नीचे भी होता था फिल्मों का प्रदर्शन
– परदे के दोनों ओर बैठा करते थे दर्शक, महिलाओं को देखनी पडती थी ‘मिरर फ्रेम’
यहां यह भी विशेष उल्लेखनीय है कि, कई गांवों में बिना तंबू लगाए खुले मैदान में चारों ओर से कनात लगाकर टुरिंग टॉकीज लगाई जाती थी और खुले आसमान के नीचे बिना छत वाली टुरिंग टॉकीज में परदे पर फिल्मों का प्रदर्शन होता था. खास बात यह हुआ करती थी कि, परदे के दोनों ओर दर्शकों को बिठाया जाता था. जिसमें प्रोजेक्टर की ओर रहनेवाले परदे के सामने तो पुरुष दर्शकों के लिए जगह हुआ करती थी. वहीं परदे के दूसरी ओर महिलाओं के बैठने हेतु व्यवस्था रहा करती थी. जिसके चलते महिलाओं को परदे पर फिल्म की ‘मिरर फ्रेम’ देखनी पडती थी और वे उसमें भी काफी खुश रहा करती थी कि, उन्हें बडे परदे पर फिल्म देखने का मौका मिला है.
* तहसील वाले शहरों में भी अधिकांश पक्की टॉकीजे हो गई बंद
– 21 में से केवल 6 टॉकिजों में अब लगती है फिल्मे
जिस तरह किसी समय अमरावती शहर में 11 टॉकीजे हुआ करती थी और अब इसमें से केवल 2 टॉकीजों में ही फिल्मों का प्रदर्शन हो रहा है. उसी तरह किसी समय जिले के तहसील मुख्यालय वाले अलग-अलग शहरों में 21 टॉकीजे हुआ करती थी. जिससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि, जिले के तहसील क्षेत्रों में फिल्मों को लेकर किस हद तक दीवानगी रहा करती होगी. लेकिन आज स्थिति यह है कि, 21 में से 15 टाकीजे हमेशा के लिए बंद हो गई है और आज केवल 6 टॉकीजो में ही फिल्मों का प्रदर्शन होता है. स्थिति यह है कि, कुछ तहसील मुख्यालय वाले शहरों की सभी टॉकीजे अब बंद हो गई है. वहीं कुछ तहसीलो में इक्का-दुक्का टॉकीजे चल रही है.
इस संदर्भ में उपलब्ध जानकारी के मुताबिक अब अमरावती महानगर का ही हिस्सा रहनेवाले बडनेरा शहर में किसी समय जयहिंद टॉकीज नामक एक टॉकीज हुआ करती थी, जिसके नाम पर बडनेरा में आज भी जयहिंद चौक है. लेकिन जयहिंद टॉकीज को बंद हुए एक लंबा अरसा बीत चुका है. इसके साथ ही जिले की वरुड तहसील में केदार टॉकीज, बालाजी टॉकीज, विजय टॉकीज नामक तीन टॉकीजे हुआ करती थी. जहां पर वरुड सहित मध्य प्रदेश के सीमावर्ती गांवों तक से लोगबाग फिल्मे देखने हेतु आया करते थे. परंतु आज वरुड शहर में स्थित तीनों टॉकीजे बंद हो चुकी है. इसी तरह मोर्शी में कभी चार टॉकीजें हुआ करती थी. जिसमें से इस समय रुपेश टॉकीज के तौर पर केवल एक टॉकीज ही चल रही है. वहीं मोर्शी की कैलाश टॉकीज, प्रभुदयाल टॉकीज व गजानन टॉकीज बंद हो चुकी है.
इसके अलावा जुडवां शहर रहनेवाले परतवाडा व अचलपुर में किसी वक्त चार टॉकीजे हुआ करती थी. जिसमें परतवाडा की दो, अचलपुर की एक व परतवाडा से सटे कांडली ग्रापं क्षेत्र की एक टॉकीज का समावेश था. इसमें से इस समय परतवाडा की श्याम टॉकीज में अब भी फिल्मों का प्रदर्शन होता है. वहीं लक्ष्मी टॉकीज बंद हो गई है. साथ ही अचलपुर में श्री टॉकीज अब भी चल रही है. जबकि कांडली स्थित गोविंद टॉकीज बंद हो चुकी है.
इसके साथ ही धामणगांव रेलवे में श्याम टॉकीज व मुकुंद टॉकीज नामक दो टॉकीज थी और अब ये दोनों ही टॉकीजे बंद हो चुकी है. यानि अब धामणगांव रेलवे में कोई टॉकीज नहीं है. इसी तरह किसी समय अंजनगांव सुर्जी में भी लक्ष्मी टॉकीज व व्यंकटेश टॉकीज नामक दो टॉकीजे हुआ करती थी और अब ये दोनों टॉकीजे बंद हो चुकी है. कुछ इसी तरह कभी दर्यापुर में भी दो टॉकीजे हुआ करती थी. जिनमें बनोसा स्थित हरी टॉकीज व दर्यापुर स्थित मोहन टॉकीज का समावेश था और इस समय ये दोनों टॉकीजे बंद हो चुकी है.
इसके साथ ही इस समय धारणी में मेलघाट सिनेमा, चांदुर रेल्वे में मनोज टॉकीज व तलेगांव में राघव टॉकीज ने अपना अस्तित्व बचाए रखा है और इन तीनों टॉकीजों में आज भी फिल्मों का प्रदर्शन बदस्तुर चल रहा है. ये टॉकीजे कब तक अपना अस्तित्व बचाए रखती है, यह आनेवाले भविष्य पर निर्भर करता है.





