पार्टी द्वारा की जाती अनदेखी से विदर्भ के शिवसैनिकों में अस्वस्थता
कांग्रेस-राकांपा लग गये काम पर
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शिवसेना अपने अस्तित्व को टटोल रही
अमरावती/प्रतिनिधि दि.16 – किसी समय विदर्भ क्षेत्र को शिवसेना का मजबूत गढ माना जाता था और शिवसेना प्रमुख स्व. बालासाहब ठाकरे के जमाने में शिवसेना ने विदर्भ के सभी जिलों में शिवसैनिकों की जबर्दस्त फौज खडी करते हुए अपनी मजबूत पकड बना ली थी, लेकिन अब धीरे-धीरे विदर्भ क्षेत्र पर शिवसेना की पकड थोडी ढिली होती दिखाई दे रही है और आपसी राजी-नाराजी व गुटबाजी के चलते विदर्भ में पार्टी लगभग बिखराव की ओर है तथा अपने वजूद की तलाश कर रही है. हालांकि अब भी विदर्भ क्षेत्र से शिवसेना के तीन सांसद है. लेकिन इसके बावजूद भी पार्टी एवं संगठन में पहले की तरह ‘धार’ दिखाई नहीं दे रही. इसके पीछे सबसे मुख्य वजह यह है कि, पार्टी के अधिकांश बडे नेताओं द्वारा मुंबई को ही पूरा महाराष्ट्र मान लिया गया है और विदर्भ क्षेत्र की पार्टी में काफी हद तक अनदेखी की जा रही है. साथ ही विदर्भ क्षेत्र के किसी नेता के पास पार्टी में कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी नहीं है. ऐसी तमाम बातों की वजह से जमीनी स्तर पर काम करनेवाले शिवसैनिकों में काफी हद तक नाराजगी का माहौल है.
बता दें कि, वर्धा जिले के हिंगणघाट से तीन बार विधायक रह चुके पूर्व मंत्री व शिवसेना उपनेता अशोक शिंदे ने मुंबई में कांग्रेस का हाथ थाम लिया. इसके साथ ही चार बार रामटेक के विधायक रहनेवाले शिवसेना विधायक एड. आशिष जयस्वाल भी पार्टी से नाराज बताये जा रहे है और उन्होंने कई मौकों पर अपनी नाराजगी को खुलकर व्यक्त भी किया है. यह स्थिति शिवसेना के लिए काफी हद तक ठीक नहीं कही जा सकती. विदर्भ क्षेत्र में राजनीतिक तौर पर हमेशा ही कांग्रेस व भाजपा का पलडा भारी रहा तथा शिवसेना व राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी द्वारा इस क्षेत्र की ओर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया. किसी जमाने में कांंग्रेस की अच्छी-खासी पकड रहनेवाला विदर्भ एक समय कांग्रेस के हाथ से भी निकल गया था तथा प्रदेशाध्यक्ष नाना पटोले के रूप में अब कही जाकर विदर्भ के हिस्से में नेतृत्व की जिम्मेदारी आयी है. किंतु शिवसेना व राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने विदर्भ को न नेता दिये और न ही यहां के कार्यकर्ताओं को ताकत दी. किसी समय विदर्भ ने शिवसेना को भरपुर समर्थन दिया और यहां से शिवसेना के 4 सांसद विजयी रहे, जिनकी संख्या अब 3 हो गई है. इसके अलावा विधानसभा में भी विदर्भ ने शिवसेना के प्रत्याशियों को अपना प्रतिनिधि चुना. किंतु इससे पहले फडणवीस सरकार के कार्यकाल में पांच वर्ष तथा अब खुद शिवसेना के पार्टी प्रमुख व मुख्यमंत्री उध्दव ठाकरे के नेतृत्व में डेढ साल, ऐसे लगातार साढे 6 साल तक सत्ता में रहने के बावजूद शिवसेना विदर्भ क्षेत्र में समाज के अंतिम घटक तक अपनी पकड बनाने में अपेक्षित रूप से सफल नहीं हो पायी है तथा मुख्यमंत्री सहित पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेताओं द्वारा शिवसैनिकों व किसानों से संवाद साधे जाने का दृश्य दिखाई नहीं दिया. वहीं एक-दो अपवादों को छोडकर मुंबई के संपर्क नेताओं के दम पर विदर्भ में शिवसेना का भगवा फहराने का प्रयास किया जाता है. किंतु विदर्भ के नेताओं को अपेक्षित पद व प्रतिनिधित्व नहीं दिये जाते, ऐसा शिवसैनिकों का मानना है. विदर्भ क्षेत्र से वास्ता रखनेवाले संजय राठोड को विवादों में घिरने के बाद वनमंत्री पद से हटना पडा था. किंतु उनके स्थान पर विदर्भ क्षेत्र से अन्य किसी को मौका नहीं मिला है. साथ ही उपराजधानी का दर्जा रहनेवाले नागपुर शहर व जिले में पार्टी का संपर्क मंत्री नहीं है. ऐसे में कहा जा सकता है कि, शिवसेना विदर्भ में अब भी अपने संगठन को लेकर पूरी मजबूती के साथ मोर्चा खडा नहीं कर पायी है.
विगत साढे पांच दशकों के दौरान कई उतार-चढाव देख चुकी शिवसेना के लिए विदर्भ में अब भी काफी संघर्ष बाकी है. सर्वसामान्यों का साथ देनेवाली और अन्याय के खिलाफ लडनेवाली शिवसेना की पहचान हाल-फिलहाल के दिनों में कुछ फिकी होती जा रही है. प्रखर हिंदुत्व तथा शिवसेना प्रमुख बालासाहब ठाकरे की शैली को देखते हुए विदर्भ क्षेत्र के कई युवा किसी समय शिवसेना की ओर आकर्षित हुए थे. पश्चात सन 1995 में पार्टी पहली बार भाजपा के साथ मिलकर राज्य की सत्ता में आयी थी. लेकिन वर्ष 2006 से 2009 के दौरान पार्टी में लगभग दरार पड गई. वर्ष 1990 में भाजपा के साथ कोई युती नहीं रहनेवाली शिवसेना ने 39 सीटों पर चुनाव लडकर 9 सीटें जीती थी और कई निर्वाचन क्षेत्रों में शानदार प्रदर्शन किया था. जिसके बाद सर्वाधिक 11 सीटें वर्ष 1995 में हासिल की. किंतु कालांतर में टिकट वितरण को लेकर गुटबाजी और अंतर्कलह का दौर शुरू हो गया, जिसके चलते संगठन की मजबूती पर ध्यान देने की बजाय राजनीतिक प्रतिस्पर्धा शुरू हुई. वहीं स्थानीय स्तर पर सभी लोगों को एक साथ लेकर चलनेवाले किसी नेता का अभाव रहने के चलते काफी हद तक बिखराव की स्थिति रही, जो अब भी जारी है. वहीं दूसरी ओर फिलहाल समूचे राज्य की कमान संभाल रही शिवसेना के तमाम बडे नेता ‘मैग्नेटिक महाराष्ट्र’ की ओर ही ध्यान दे रहे है और फिलहाल विदर्भ के शिवसैनिकों के हिस्से में सिवाय अनदेखी के और कुछ नहीं है. ऐसे में विदर्भ क्षेत्र में पार्टी को दुबारा संभालने व संगठन को मजबूत करने हेतु पार्टी के नेताओं द्वारा ‘विजनरी विदर्भ’ की ओर भी ध्यान दिये जाने की जरूरत है, ऐसा कई शिवसैनिकों का मानना है.