उस बाघ ने तय किया दो हजार किमी का सफर
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यवतमाल के जंगल से चलकर पहुंचा मराठवाडा परिसर
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इतने लंबे सफर का दो वर्ष में दूसरा मामला
अमरावती/प्रतिनिधि दि. 20 – अमूमन बाघ अपने अधिवास क्षेत्र में ही रहना पसंद करते हैं और इस अधिवास से किसी अन्य बाघ का दखल बर्दाश्त नहीं करते. किंतु यदि कोई नया बाघ इस अधिवास क्षेत्र में आकर अपना दबदबा कायम कर लेता है, तो उस स्थिति में ही पहले वाला बाघ अपने पुराने अधिवास क्षेत्र को छोड़कर किसी नये अधिवास क्षेत्र की तलाश में निकलता है. लेकिन इन दिनों ऐसी किसी प्रतिस्पर्धा के बिना ही बाघों द्वारा अपना पुराना अधिवास क्षेत्र छोड़कर हजारों किमी की दूरी तय करते हुए नये अधिवास क्षेत्र को तलाश करने की प्रवृत्ति देखी जा रही है. जिसके तहत यवतमाल जिले के जंगलों में रहनेवाला एक बाघ करीब दो हजार किमी की दूरी तय करते हुए मराठवाडा परिसर तक जा पहुंचा. यहां यह विशेष उल्लेखनीय है कि दो साल पहले भी यवतमाल जिले से एक बाघ ने करीब तीन हजार किमी का सफर तय करते हुए अपने लिए नया अधिवास क्षेत्र खोजा था. ऐसे में बाघों के व्यवहार में आए इस बदलाव की वजह को खोजने के साथ ही व्याघ्र संवर्धन और संरक्षण का काम वनविभाग के लिए चुनौतिपूर्ण होता जा रहा है.
जानकारी के मुताबकि जून 2019 में पांढरकवडा तहसील अंतर्गत टिपेश्वर वन क्षेत्र से टी-1सी-1 नामक बाघ ने स्थलांतरण किया था. जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय रहा. वहीं अब डेढ़ वर्ष बाद टी-3सी-1 नामक बाघ टीपेश्वर के जंगल से निकल कर दो हजार किमी की दूरी नापते हुए मराठवाडा के वनक्षेत्र में जा पहुंचा है. इस परिसर में गश्त लगानेवाले वन कर्मचारियों को पहले किसी बाघ के फूटप्रिंट मिले. साथ ही बाघ द्वारा शिकार किये जाने के कुछ सबूत भी मिले. इस परिसर में ट्रैप कैमरा लगाये जाने पर विगत 15 मार्च को बाघ के छायाचित्र भी मिल गये. करीब सात से आठ दशक बाद मराठवाडा परिसर के वनक्षेत्र में बाघ का अस्तित्व दिखाई देने के बाद उसे यहां टिकाए रखना भी अब वनविभाग के समक्ष एक तरह की चुनौति है.
वन विभाग के वरिष्ठाधिकारियों के मुताबिक इस बाघ ने अपनी पूरी यात्रा यवतमाल से मराठवाडा के बीच पडऩेवाले गांवों की सीमा के आसपास होते हुए पूर्ण की होगी और यह सौभाग्य की बात रही कि इस दौरान उसका इंसानों के साथ कहीं संघर्ष नहीं हुआ. लेकिन एक जैसे ही रास्ते से दो अलग-अलग बाघों द्वारा लंबी दूरी तय करने से इस कॉरिडोर को अब बेहद महत्वपूर्ण माना जाने लगा है.
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गोताला में वर्ष 1940 के बाद पहली बार दिखा बाघ
उल्लेखनीय है कि मराठवाडा क्षेत्र के गोताला वनपरिसर में तेंदूओं की मौजूदगी है, लेकिन वर्ष 1940 के बाद यहां पहली बार बाघ के फूट प्रिंट पाये गये. करीब 15 दिन पहले यहां खवल्या मांजर पर संशोधन करते समय तुषार पवार नामक संशोधक को बाघ के पंजों के निशान दिखाई दिये थे. जिसकी जानकारी पवार ने वन अधिकारियों को दी थी और यहां पर ट्रैप कैमरे लगाये गये थे, जिसमें बाघ के छायाचित्र कैद हुए. फिलहाल वन विशेषज्ञों ने अनुमान जताया है कि शायद वयस्क होने के बाद अपनी मां से अलग होकर अपना स्वतंत्र अधिवास क्षेत्र बनाने हेतु इस बाघ ने दो हजार किमी की दूरी तय कर अपने लिये नया जंगल खोजा है.
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तीन अभयारण्यों को किया पार
टिपेश्वर अभयारण्य से निकल कर औरंगाबाद शहर से करीब 70 किमी दूर पश्चिम घाट की अजंता पर्वतश्रेणी में बसाये गये गोताला अभयारण्य तक पहुंचने के दौरान इस बाघ ने रास्ते में पडऩेवाले पैनगंगा, ज्ञानगंगा तथा काटेपूर्णा अभयारण्यों को पार किया.
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इस घटना के चलते संरक्षित अधिवास यानि कॉरिडोर का महत्व एक बार फिर सामने आया है. बाघों के प्रभावी संचार व्यव्थापन के लिए इसे पहचानना और सुरक्षित रखना बेहद जरूरी हो चला है.
– सुनील लिमये,
अप्पर प्रधान मुख्य वनसंरक्षक
(पश्चिम वन्यजीव विभाग)
लगातार बढते शहरीकरण तथा विकास कामों की वजह से दक्षिण भारत , मध्य भारत तथा उत्तर भारत के जंगलों की बीच आपसी संलग्नता अब काफी हद तक खंडित हो गई है, जिसका सीघा असर बाघों के संरक्षित अधिवास पर पड़ा है. लेकिन इसके बावजूद भी बाघों द्वारा अपने निवास क्षेत्र की खोज में एक जंगल से होते हुए दूसरे व तीसरे जंगल के बीत हजारों किमी की दूरी तय की जा रही है.
– किशोर रिठे
सदस्य, राज्य वन्यजीव मंडल (नागपुर)