मुख्य समाचारविदर्भ

नगराध्यक्ष की पांच वर्षों की देखी-सुनी व्यथा

चार साल तक अल्पमत की सरकार चलाने की कसरत

* कलेक्टर ने किया था सुनीता फिस्के को अध्यक्ष पद से डिस्क्वालिफाई
* जातीय प्रमाणपत्र की वैधता को दी गई थी चुनौती
* नगराध्यक्ष के ‘स्वाक्षरी अधिकार’ पर मचा था बवाल
परतवाड़ा/अचलपुर/दि.30– ऐ काफिलेवालों, तुम इतना भी नहीं समझे, लूटा है तुम्हे रहजन ने, रहबर के इशारे पर. यह शेर अचलपुर नगर पालिका की नगराध्यक्षा सुनीता फिस्के पर पूरी तरह से मुफीद बैठता है. 27 दिसंबर 2016 को जब अपनी चार साल की बिटिया कल्याणी को घर मे छोड़कर सुनीता नरेंद्र फिसके अचलपुर नगर पालिका के अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान होने पहुंची, तब उन्होंने सोचा भी नही होगा कि पांच वर्ष का यह कार्यकाल कांटों भरा सफर होगा. दुश्मन तो दुश्मन रहेंगे ही, लेकिन अपने भी बेगाने हो जाएंगे. नगराध्यक्ष बनने की असीम खुशी अपने हृदयपटल पर लेकर सुनीता फिस्के ने अपना पदभार संभाला जरूर, लेकिन ये खुशियां कुछ महीनों में ही काफूर हो गई थी. यदि उनके पति नरेंद्र फिस्के को स्वीकृत सदस्य नही बनाया गया होता, तो सुनीता फिस्के के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाकर उन्हें घर भेजने की पूरी तैयारी भी भाई लोगों ने कर रखी थी. उनकी वो तमन्ना पूरी हो जाती, अगर नरेंद्र फिस्के को-ऑप्शन के जरिये सदन में नही पहुंचते. असंख्य दुश्वारियां, राजनीतिक उठापटक और कोर्ट-कचहरी की झंझटों से मुकाबला करते हुए ये पांच वर्ष बीत गए और कार्यकाल के अंतिम वर्ष 2021 में सब जुड़े, फंड भी मिला, तो काम करने का वक्त नहीं रहा. एसडीओ तो 28 दिसंबर को ठीक सुबह 10.30 बजे ही अकाउंट सेक्शन को आवश्यक सूचना देकर निकल पड़े.
लेकिन इन पांच वर्षों के दौरान एक बात बहुत स्पष्ट हो गई कि कोई भी महिला स्वयं के बलबूते पर पहली मर्तबा नगराध्यक्ष की कुर्सी नही संभाल पाती है. सरकार सिर्फ स्थानीय निकायों में ही पचास फीसदी आरक्षण का दिखावा करती है. विधानमंडल में ऐसा करने में कोई कभी रुचि नही दिखाता है. नगराध्यक्ष सुनीता और उनके पति व स्वीकृत सदस्य नरेंद्र फिसके के राजनीतिक शाही भोजन में ढेर सारा नमक पहले ही मौके पर गिर गया था. अवसर था प्रवीण पाटिल के उपाध्यक्ष बनने का, लेकिन अवसर मिला शशि लाला को वीपी बनने का. प्रवीण यानी राज्यमंत्री और तत्कालीन विधायक बच्चू कडू का खासमखास माणूस. मेंबरो को प्रवीण से खासी एलर्जी थी, लेकिन तेजी से प्रवीण का नाम ही वीपी के लिए दौड़ रहा था. विलायतपुरा के एक घर से 28 लाख का वितरण तय था. प्रवीण के नसीब में राजयोग नही था. मेंबर तैयार नहीं हुए. 28 लाख की थैली लौटानी पड़ी. 2 लाख ज्यादा खर्च कर 30 लाख में शशि को उपाध्यक्ष का पद मिला. बीजेपी के बंदे के रूप में सेना की बाजूवाली कुर्सी पर शशिकांत विराजमान हुए. वो सिर्फ वीपी बनने तक ही फिसके के साथ नजर आए. दरअसल साथ किसी को किसी का देना ही नही था. यह एक नया फंडा था कि जनता से सीधे चुनकर आये अध्यक्ष को कुछ करने का मौका ही नहीं दिया जाये. यदि सभी मेंबर ‘यूनिटी’ से काम लेंगे, तो अध्यक्ष उनका क्या बिगाड़ लेगा. इसके चलते अब हर काम में इसी यूनिटी के दबावतंत्र का उपयोग लिया जाने लगा.हौसला इतना ज्यादा बढ़ने लगा था कि भाई लोग ठेकेदारों से कमीशन की वसूली भी बाहर के बाहर करने लगे थे.
नगराध्यक्ष के चुनाव भी बड़े रोमांचक हुए थे. उस मर्तबा सीधे जनता से अध्यक्ष का चुनाव था. सेना और बीजेपी का गठबंधन बिखर चुका था. बीजेपी से ढेपे मैडम मैदान में थी. कांग्रेस से सरवत अंजुम साजिद फुलारी ने हुंकार भरी थी. शिवसेना ने सुनीता फिसके को उम्मीदवार बनाया. बच्चू के प्रहार से जवंजाल ने पर्चा भरा था. पूर्व नगराध्यक्ष रंगलाल पहेलवान की पुत्रवधू भी अध्यक्ष की दौड़ में थी. मतगणना के अंतिम दो चरण शेष थे, तब तक सरवत अंजुम करीब 4,800 वोटो से बढ़त लिए आगे चल रही थी. सेना समर्थकों के माथे पर शिकन दिखाई दे रही थी. मतगणना की अंतिम पेटियों में सुनीता का भविष्य कैद था. विलायतपुरा, जोगीपुरा, काला हनुमान, सुल्तानपुरा, जीवनपुरा की मतगणना की शुरुआत होते ही अंधेरा छटने लगा. 4,800 की लीड को काटकर सुनीता फिसके करीब 900 वोट से विजयी घोषित हुई. 24 हजार से ज्यादा वोट लेकर उन्हें विजय प्राप्त हुई. सरवत अंजुम 900 वोटों के फर्क से पराजित होकर दूसरे स्थान पर रही. बीजेपी के ढेपे 9 हजार और प्रहार की जवंजाल 6 हजार वोट लेकर तीसरे और चौथे क्रमांक पर रही. सेना कार्यकर्ताओ ने जोरदार इस्तकबाल करते हुए सुनीता को अध्यक्ष पद पर विराजमान किया.
किंतु पराजय से आहत साजिद ने जातीय वैधता प्रमाणपत्र को चुनौती देते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया. अध्यक्ष पद आज छीना जाता कि कल, यह सोचकर अनेको ने नई शेरवानी भी सिलवा ली थी. इधर कोर्ट कचहरी शुरू हो चुकी थी, तो उधर पालिका सदन के कुछ चतुर सुजान मेंबरों ने अध्यक्ष को ‘स्वाक्षरी’ का अधिकार नही है, इस बात को लेकर कोर्ट में याचिका दायर की. नसीब बलवान थे कि सुनीता और नरेंद्र फिस्के के विरोधियों के दोनों भी दांव उल्टे पड़े. अदालत ने हर आर्थिक व्यवहार में ‘अध्यक्ष की स्वाक्षरी’ को अनिवार्य घोषित किया, जातीय प्रमाणपत्र को भी वैध माना गया.
इसके बाद टांग खीेंचने के लिए नया गठबंधन बना प्रहार औऱ भाजपा का. नगराध्यक्ष को अल्पमत में करने की विरोधियों की कोशिश यहां रंग लाई. वो सफल हुए. सिर्फ सात पार्षदों के समर्थन से सुनीता फिसके की सरकार ने रेंगते हुए अपना कार्यकाल प्रारंभ किया. सुनीता और नरेंद्र को कोई भी काम संविधानिक तरीके से नही करने दिया जा रहा था. तुम अपने दोस्तों के नाम तो बताओ, मैं अपने दुश्मनों की तादाद तो समझ लूं, कुछ इसी तरह की तर्ज पर जहां निगाह जाती, वही सियासत के दुश्मन ही बैठे दिखाई दे रहे थे. कभी इस करवट पर पड़ी, तो कभी उस करवट पर. मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यूँ ज्यूँ दवा की. कुछ ऐसा मामला अचलपुर नगर पालिका में चल रहा था.
जातीय प्रमाणपत्र की वैधता को लेकर तत्कालीन कलेक्टर गीते पर राजनीतिक दबाव लाया गया. पूर्व मंत्री और वर्तमान मंत्री ने दहाड़ लगाई, सुबह ही सुबह नगर पालिका में डिस्क्वालिफाई की नोटिस आई. मौसम ने ली अंगड़ाई. प्रभु की कृपा थी, तो बच गए. सांसद अडसुल ने वैतरणी पार करा दी. सुबह की नोटिस शाम होने तक निरस्त हो गई. अडसुल ने गीते को ‘गीता का ज्ञान’ दिया, नोटिस खारिज हो गई. लेकिन आलम कुछ यह था कि एक उपद्रव खत्म नही होता, तो दूसरा सिर पर मंडराना शुरू कर देता था. सुनीता फिसके ने नगराध्यक्ष चुनाव के साथ ही अपने वार्ड से मेंबरी का चुनाव भी लड़ा था. वो दोनों जगहों से विजयी रही. इसलिए एक जगह से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. ऐसे में उन्होंने वॉर्ड मेंबर पद से इस्तीफा देते हुए अपने वार्ड से उन्होंने शिवसेना के उम्मीदवार के तौर पर सरिता पिंपले को भारी मतों से चुनाव जिताया. वो जीती और फिर ऐसे गई कि आज तक नही लौटी. हरीश मुगल तो मेरे अपने थे. उन्होंने भी आंखे फेर ली. हमे अपनो ने लूटा, गैरो में कहां दम था. कुछ इस तरह सुनीता फिस्के के अध्यक्ष पद के इर्दगिर्द धमा-चौकड़ी होती ही रहती थी.
जिला नियोजन समिति से हर साल 5 से 7 करोड़ रुपये प्राप्त हुए. मेंबरों की कथित ‘यूनिटी’ ने इस रकम का कभी कोई सदुपयोग नहीं करने दिया. बहुमत से डीपीडीसी की रकम को वार्डो में आवंटित कर दिया जाता रहा. पांच वर्षों में भी शहर की मुख्य सड़कों पर फूटी कौड़ी नहीं खर्च हो सकी. थोड़ी बहुत राहत सीओ वाघमले मैडम के कार्यकाल में मिली. उन्होंने सही को सही ही कहा और काफी कुछ कामों को गति प्रदान कर दिखाई. इधर फिर एक मौका मातोश्री से फिर मिला. विधानसभा में किस्मत आजमाने का. शिवसेना से उम्मीदवार घोषित हुई सुनीता फिसके. बच्चू कडू व बबलू देशमुख जैसे दिग्गज नेताओं के साथ त्रिकोणी मुकाबला हुआ. अचलपुर और चांदूर बाजार तहासील की सभी शिवसेना शाखाओं पर युवा मराठा नेतृत्व विराजमान है. जो मिला, वो खुद की साख ही थी, सेना प्रमुख का आशीर्वाद था. नरेंद्र फिस्के के मुताबिक जब भी जिक्र होता है गद्दारी का, मुझे भी कुछ दोस्तों के नाम याद आ जाते हैं. इस चुनाव में सुनीता फिसके को करीब पंद्रह हजार वोट मिले थे. वो विधायक न बने, इसके लिए अपनो ने बड़ा ही ‘अपनापन’ दिखा दिया. वक्त की गद्दारी देखी, अपनो की यारी देखी, तकदीर के फैसले देखे, अपनों के बीच फासले देखे, रूहों की हड़ताल देखी, अभिमान की चाल देखी, मतलब की दुनिया देखी, मिलावटी चाल देखी. सुनीता फिस्के और नरेंद्र फिस्के को विधानसभा में सुनियोजित ढंग से पराजित किया गया. अपेक्षा से बहुत कम वोट प्राप्त हुए. गिरे, फिर गिरे, फिर उठे, फिर गिरे, का यह सफर अब कही जाकर समाप्त हुआ.
आज पालिका में चार इंजीनियरों का बैकलॉग है. तायड़े के पास धारणी का अतिरिक्त प्रभार है. दुदानी बगैर काम के बैठे है. जिस तरह से निर्माण विभाग सक्रिय होना चाहिए था, आज तक नही हो पाया. पूर्व नगराध्यक्ष और वरिष्ठ पार्षद लल्लूप्रसाद दीक्षित, संध्या इंगले, साबीर, सल्लुभाई, ताहिरा बानो, शाकिर, आबिद इन सात लोगो ने अंतिम क्षण तक सुनीता फिसके को समर्थन देना जारी रखा था. कोरोनाकाल ने नगर पालिका के डेढ़ वर्ष खराब कर दिए. इस दरमियान कोई शासकीय निधि भी प्राप्त नहीं हुई. जो निधि थी उसे लोगो की जान बचाने पर खर्च करना था. सभी मीटिंग्स रद्द कर दी गई थी.
अंतिम प्रहर में पालिका के तमाम प्रहरी एक हो गए. 45 करोड़ रुपये प्राप्त हुए. सभी कामों के टेंडर लग चुके है. ये सभी काम जल्द ही पूरे होंगे. अब प्रशासक की स्वाक्षरी से बिलों का भुगतान होगा. इस स्वाक्षरी पर अब किसी को आपत्ति भी नही रहेंगी.
27 दिसंबर को नगर पालिका छोड़ने के बाद अब थोड़ी बहुत राहत है. बड़ा लड़का यश मुंबई में पढ़ रहा है. कल्याणी अब कक्षा नौ में पढ़ने लगी है. जब सुनीता फिस्के को अध्यक्ष पद मिला था, तब राज्य में देवेंद्र फडणवीस की सरकार में थी. निधि मिली ही नहीं. फिर कोरोना. सीएम उद्धव ने 30 करोड़ रुपये की निधी विकास हेतु देने की घोषणा की. अडसुल का राजनीतिक पतन हुआ, तो 30 करोड़ भी गायब हो गए. चतुर सुजान मेंबर शिकायत पर शिकायत करते रहे. संजू जैसों ने खूब नकली कोटेशन चलाये. कोटेशन बने, चले औऱ बिल निकलते रहे. कलेक्टर के पास एक एक महीने में चार-चार दफे शिकायते होती रही. भाई लोगों ने दीपक के साथ मिलकर कचरा भी खूब उठाया. कचरा उठाते-उठाते कुछ मेंबर ही कचरा सेठ हो गए. दियाबत्ती का ठेका खुद शासन ने ही आवंटित कर दिया. शिवसेना के पदाधिकारी व कार्यकर्ताओ की भी अपनी समस्याएं थी. एक को मनाओ तो दूजा रूठ जाता था. यह सिलसिला आज तक जारी ही है.
एक पत्रकार की नजर से पांच वर्षों के इस कार्यकाल को रखने की कोशिश की गई है. हमाम में सभी नंगे है. नरेंद्र फिस्के ने ‘माल नहीं सूता’ यह कहना सरासर गलत होगा. नगर पालिका प्रांगण में जिस की स्टिक में बॉल आई, वो ही उसे ड्रिबलिंग करता हुए लेकर चलते बना. भीमसेनी काजल आंखों में डालकर नरेंद्र फिस्के को देखते रहना पड़ता थी कि आखिर ‘लीकेज’ कहाँ हो रहा है. पांच साल तक सतर्क और चौकन्ना रहकर यह अल्पमत सरकार चलती रही. काला हनुमान के दर्शन करके 2016 में जो आगाज किया था, उसका समापन भी इसी माह में काला हनुमान पर हुआ. इस मौके पर 4 मुस्लिम कार्यकर्ताओ का शिवसेना में प्रवेश जिले की सबसे बड़ी हेडलाइन बन गई.
मशहुर व मकबूल शायर मुनव्वर राणा कहते हैं कि….
बुलंदी देर तक किस शख़्स के हिस्से में रहती है,
बहुत ऊँची इमारत हर घड़ी खतरे में रहती है.

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