मोर्शी/दि.15– शहर में दिवाली के पावन पर्व पर लक्ष्मीपूजन के खत्म होते ही रात से गवलन के पैरों में बंधे घुंघरुओं की झंनकार व ढोल की थाप सुनने को मिल रही है.
दिवाली होने के बाद निकाली जाने वाली गवलन नृत्य की परंपरा मोर्शीवासियों ने आज भी संभाल रखी है. दिवाली के बाद सात दिनों तक पारंपरिक पध्दती से गवलन उत्सव बडे ही उत्साह के साथ मनाया जाता है. यह गवलन उत्सव की शुरुआत रामजीबाबा मंदिर से की जाती है. गवलन उत्सव में सभी जाती-धर्म के नागरिक सहभागी होते है. ढोलकी, तुनतुना, बासुंरी, मंजीरा बजाते हुए दिवाली के गीत एक सुर में गाकर गवलन उस पर अपने पैरो के ताल पर नृत्य करती है. स्त्रीवेश लेकर युवक बेहतरीन नृत्य का प्रदर्शन करते है. यह मनोरंजन नहीं बल्कि समाज सुधारक के गीत व शायरी पढ कर जनजागृती करते है.
* स्वयं रचते है गीत
गवलन घर-गर जाकर नाच-गाकर लोकगीत कहते है. विभिन्न तरह की दुआ देकर यह नजराना लेते है. गवलन के साथ एक ढोलकी, लोकगीत गाने वाले गायक व अन्य सहकारी होते है. बांसुरी बजाने वाला व्यक्ति सबसे ज्यादा आकर्षण का केंद्र होता है. विशेष यह की यह गीत किसी पुस्तक से नहीं बल्कि स्वयं रचित होते है.
* रातभर गाव
मोबाईल के इस दौर में संस्कृती अब लुप्त होती चली है. बावजूद इसके गवलन व लोकनृत्य के माध्यम से ग्रामीण वाद्ययंत्रों की कला जीवंत है. दिवाली की रात में निकली गवलन के पीछे सडकों पर सैकडों युवक भी सहभागी होते है. जिसके कारण रात भर शहर की सडकों पर भीड नजर आती है.