अमरावतीविदर्भ

ब्रह्मज्ञान का ठहराव ही जीवन में मुक्ति मार्ग को प्रशस्त करता है

सत्गुरु माता सुदीक्षा जी ने नववर्ष पर दिया मानवता का दिव्य संदेश

अमरावती / दि.२० ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति से जीवन में वास्तविक भक्ति का आरंभ होता है और उसके ठहराव से हमारा जीवन भक्तिमय एवं आनंदित बन जाता है, इस आशय का कथन निरंकारी सत्गुरु माता सुदीक्षा जी महाराज द्वारा किया गया. ८ नवंबर को निरंकारी चौक, बुराडी रोड, दिल्ली में आयोजित नववर्ष के विशेष सत्संग समारोह में उपस्थित श्रद्धालुओं को उन्होंने संबोधित किया. इस कार्यक्रम का लाभ लेने हेतु दिल्ली एवं एनसीआर सहित अन्य स्थानों से भी हजारों की संख्या में भक्तगण उपस्थित हुए और सभी ने वर्ष के प्रथम दिन सत्गुरु के साकारमयी दिव्य दर्शनों एवं पावन प्रवचनों से स्वयं को आनंदित एवं कृतार्थ किया. सतगुरु माता जी ने ब्रह्मज्ञान का महत्व बताते हुए फरमाया कि ब्रह्मज्ञान का अर्थ हर पल में इसकी रोशनी में रहना है और यह अवस्था हमारे जीवन में तभी आती है जब इसका ठहराव निरंतर बना रहे, तभी वास्तविक रूप में मुक्ति संभव है. इसके विपरीत यदि हम माया के प्रभाव में ही रहते है तब निश्चित रूप से आनंद की अवस्था और मुक्ति प्राप्त करना संभव नहीं. जीवन की सार्थकता तो इसी में है कि हम माया के प्रभाव से स्वयं को बचाते हुए अपने जीवन के उद्देश्य को समझे कि यह परमात्मा क्या है और हम उसे जानने हेतु प्रयासरत रहे. इस संसार में निरंकार एवं माया दोनों का ही प्रभाव निरंतर बना रहता है. अत: हमें स्वयं को निरकार से जोड़कर भक्ति करनी है. अपने जीवन में सेवा, सुमिरण, सत्संग को केवल एक क्रिया रूप में नहीं, एक चैक लिस्ट के रूप में नहीं कि कंवल अपनी उपस्थिति को जाहिर करना है अपितु निरंकार से वास्तविक रूप में जुड़कर अपना कल्याण करना है.सतगुरु माता जी ने उदाहरण सहित समझाया कि जिस प्रकार एक विद्यालय में सभी छात्र शिक्षा ग्रहण करने आते है और जिन छात्रों को ज्ञान समझ नहीं आता उनके संदेह निवारण हेतु वहां पर अध्यापक उपस्थित होते है जो उनकी शंकाओं का निवारण कर उन्हें सही मार्गदर्शन देते है जिसके उपरांत उन शिक्षाओं से अपने जीवन को सफल बना लेते है. वहीं दूसरी ओर कुछ छात्र संकोच अथवा किसी अन्य कारण से उन शंकाओं को अपने मनों में बिठा लेते है और फिर वहीं शंका नकारात्मक भावी में परिवर्तित हो जाती है, जिसके प्रभाव में आकर उन शंकाओं का वह निवारण नहीं करते और परिणामस्वरूप वह जीवन में कभी सफल नहीं बन पाते. सतगुरु का भाव केवल यही कि ब्रह्मज्ञान लेने मात्र से जीवन में सफलता संभव नहीं अपितु उसे समझकर, जीवन में उसके ठहराव से ही कल्याण संभव है. अन्यथा हमारा जीवन ज्ञान की रोशनी में भी अंधकारमयी बना रहता है और अपना अमोलक जन्म हम भ्रम भुलेखो में ही व्यतीत कर देते है.अंत में सतगुरु ने सबके लिए यही अरदास करी कि हम सभी अपने उत्तम व्यवहार एवं भक्तिमय जीवन से समस्त संसार को प्रभावित करते हुए सुखद एंव आनंदमयी जीवन जीएं. सभी संतों का जीवन निरंकार का आधार लेते हुए शुभ एवं आनंदित रूप में व्यतित हो.

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