सामान्य एनीमिया से कहीं अधिक गंभीर है अप्लास्टिक एनीमिया : डॉ. राहुल अरोड़ा

अमरावती/दि.7- अप्लास्टिक एनीमिया एक दुर्लभ लेकिन जानलेवा बीमारी है, जो केवल लाल रक्त कोशिकाओं की ही नहीं, बल्कि शरीर की तीनों प्रकार की रक्त कोशिकाओं – लाल रक्त कोशिकाएं (आरबीसी), सफेद रक्त कोशिकाएं (डब्ल्यूबीसी), और प्लेटलेट्स – के निर्माण को पूरी तरह रोक देती है. यह सामान्य एनीमिया से बिल्कुल अलग और अधिक खतरनाक स्थिति है, ऐसा रक्तरोग विशेषज्ञ एवं बोन मैरो ट्रांसप्लांट (बीएमटी) कंसल्टेंट डॉ. राहुल अरोड़ा ने बताया.
डॉ. अरोड़ा के अनुसार, सामान्य एनीमिया आमतौर पर आयरन, विटामिन बी12 या फोलिक एसिड की कमी से होता है, जिसका इलाज सप्लिमेंट्स से किया जा सकता है. लेकिन अप्लास्टिक एनीमिया में बोन मैरो पूरी तरह निष्क्रिय हो जाता है जिससे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बुरी तरह प्रभावित होती है. इसके कारण लगातार थकान, चक्कर, बार-बार संक्रमण और अचानक होने वाला रक्तस्राव जैसे लक्षण सामने आते हैं. डॉ. अरोड़ा ने बताया कि, इस बीमारी के लक्षण शुरू में सामान्य लगते हैं, लेकिन बीमारी एकदम तेजी से गंभीर रूप ले सकती है. विशेष रूप से किशोरों, युवाओं और 55-60 वर्ष की आयु के लोगों में इसके मामले अधिक देखे जाते हैं. कुछ मामलों में ऑटोइम्यून रोग, विशेष प्रकार के वायरस (जैसे एपस्टीन-बार, पर्बोवायरस बी19) या गर्भावस्था से जुड़ी शारीरिक स्थितियाँ भी इसका कारण बन सकती हैं. इलाज के बारे में डॉ. अरोड़ा बताते हैं, 50 वर्ष से कम उम्र के मरीजों के लिए यदि संगत बोन मैरो डोनर उपलब्ध हो तो बोन मैरो ट्रांसप्लांट सबसे प्रभावी विकल्प होता है. अगर डोनर न मिले या उम्र अधिक हो, तो इम्यूनोसप्रेसिव थेरपी (आयएसटी) दी जाती है, जिसमें हॉर्स एटीजी (एंटी-थायमोसाइट ग्लोबुलिन), साइकलोस्पोरिन और अल्ट्रॉमबोपैग जैसी दवाएं शामिल होती हैं. डॉ. अरोड़ा ने बताया कि हॉर्स एटीजी घोड़ों से प्राप्त एक विशेष औषधि है जो शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को नियंत्रित करती है. इसका उपयोग अप्लास्टिक एनीमिया और किडनी ट्रांसप्लांट के मामलों में किया जाता है. सही समय पर इलाज शुरू किया जाए तो करीब 75 प्रतिशत मरीजों में सकारात्मक परिणाम देखे जाते हैं.

Back to top button