अब राजनीति पर भारी पड रहा कार्पोरेट कल्चर

संभावित हार को टालने सभी पार्टियों सर्वे के नाम पर फूंक फूंक कर उठा रही कदम

* सर्वे रिपोर्ट के आधार पर ही प्रत्याशियों के नाम से चुनाव लडने की नीति हो रही तय
* पार्टियों के सर्वे का कई निष्ठावानों को पड रहा फटका, सर्वे रिपोर्ट के चलते टिकट कटकर घर बैठने की नौबत
* सालों साल से काम करनेवाले निष्ठवानों का भविष्य तय कर रही सर्वे करनेवाली 5-6-7 लोगों की टीम
* सर्वे टीम की रिपोर्ट ही संदेह के घेरे में, बाहर से आनेवाली टीम महज 15-20 लोगों से बात कर बनाती है रिपोर्ट
* नप के चुनावी नतीजों के बाद अब मनपा चुनाव के लिए नये सिरे से सर्वे कराने की तैयारी में सभी पार्टियां
* टिकट हासिल चुनाव लडने के इच्छुकों की जान सांसत में, कई दिग्गज दावेदारों के टिकट कटने का खतरा
अमरावती/ दि. 25- किसी जमाने में जिस व्यक्ति की अपने क्षेत्र में अच्छी खासी लोकप्रियता व जन स्वीकारिता हुआ करती थी. उसे सभी राजनीतिक दल अपने पाले मेें करते हुए चुनावी अखाडे में उतारने के लिए लालायित हुआ करते थे. समय बदलने के साथ ही लोगों में राजनीति को लेकर जबर्दस्त आकर्षण पैदा होने लगा और आज सभी दलोें के पास अलग-अलग चुनाव में हिस्सा लेने हेतु दावेदारों की कोई कमी नहीं हैं. साथ ही इन दिनों चुनाव लडना और राजनीति में बने रहना बेहद महंगा सौदा साबित होने लगा है. जिसके चलते धीरे-धीरे राजनीतिक दलों ने भी अपने तमाम तरह के नफे- नुकसान को ध्यान में रखते हुए कार्पोरेट कंपनियों की तरह काम करना शुरू कर दिया है. जिसके तहत किसी भी चुनाव के लिए प्रत्याशी का नाम तय करने एवं अपनी राजनीतिक स्थिति का आकलन करने के लिए राजनीतिक दलों द्बारा कार्पोरेट कंपनियों की तरह सर्वे रिपोर्ट का सहारा लिया जा रहा है. परंत यह तरीका उन लोगों पर भारी पडता नजर आ रहा है. जो सालो साल से किसी पार्टी के लिए समर्पित भाव से काम करते आ रहे हैं और जिनके राजनीतिक भविष्य का फैसला बाहर से आए महज 5 से 7 लोगों की सर्वे टीम द्बारा राह चलते 10-10-15 लोगों के साथ की गई बातचीत के बाद तैयार की गई सर्वे रिपोर्ट के आधार पर किया जाता है. साथ ही वरिष्ठ नेता की ओर से मिले शब्द पर विश्वास रखते हुए चुनाव लडने की तैयारी में जुटने के साथ ही अपने संसाधनों को झोंकते हुए चुनाव प्रचार तक शुरू कर चुके कई प्रबल दावेदारों की टिकट ऐन समय पर काट दी जाती है और उन्हें चुनावी मैदान से हटकर घर पर बैठने हेतु कहा जाता है. ऐसे में यह सोचा जाना बेहद जरूरी है कि आखिर राजनीतिक दलों द्बारा किन लोगों के जरिए किस आधार पर सर्वे कराया जाता है और ऐसे सर्वे रिपोर्ट की सत्यता व जमीनी हकीकत क्या होती है. साथ ही साथ इसका असलियत से किस हद तक वास्ता होता है.
उल्लेखनीय है कि 90 के दशक से पहले चुनाव एवं राजनीति में सर्वे रिपोर्ट जैसी कोई बात नहीं हुआ करती थी.अलबत्ता लोकसभा व विधानसभा जैसे बडे चुनावों के समय सत्ताधारी दलों द्बारा खूफिया त्रंत्र की सहायता लेते हुए ग्राउंड रिपोर्ट जरूर पता की जाती थी. परंतु सन 90 के दशक के बाद जैसे ही सूचना व क्रांति का दौर शुरू हुआ और जैसे-जैसे मीडिया व इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथ- साथ सोशल मीडिया का विस्तार होने लगा. वैसे-वैसे चुनाव पूर्व एवं मतदान पूर्व सर्वेक्षणों का दौर भी तेज होने लगा. इसके तहत भी पहले जहां कुछ मीडिया समूह द्बारा अपने-अपने स्तर पर ऐसे सर्वे कराते हुए चुनावी स्थितियों का आकलन किया जाता था. वही अब लगभग तमाम राजनीतिक दलों ने कुछ निजी एजेंसियों की सेवाएं लेते हुए अपने राजनीतिक निर्णयों के लिए भी खुद सर्वे कराने शुरू कर दिए. जिसके तहत किसी भी चुनाव से पहले संबंधित क्षेत्र में सर्वे कराते हुए यह जानने का प्रयास किया जाता है कि उस निर्वाचन क्षेत्र में पार्टी की राजनीतिक स्थिति क्या हैं और पार्टी के लिए कौन सा प्रत्याशी सबसे उपयुक्त रहेगा.
अमूमन अब तक ऐसे सर्वे लोकसभा और विधानसभा जैसे बडे-बडे चुनावों के लिए ही हुआ करते थे. परंतु अब महानगर पालिका, जिला परिषद व नगर परिषद जैसे छोटे निकायों के वार्ड और प्रभाग स्तरीय चुनावों के लिए भी राजनीतिक दलों द्बारा सर्वे टीमों व सर्वे रिपोर्टो का आधार लिया जाने लगा है. ऐसी खबरे भी सामने आ रही है. साथ ही पता चला है कि सर्वे एजेंसी द्बारा बाहर से भेजी जानेवाली 5 से 7 लोगों की टीम शहर के कुछ चुनिंदा लोगों के साथ बातचीत करते हुए उसके आधार पर अपनी रिपोर्ट तैयार कर देती है और फिर उसी रिपोर्ट को आधार मानकर राजनीतिक दलों द्बारा अपने प्रत्याशियों के नाम तय किए जाते हैं. जिसके चलते कई बार पार्टी के उन निष्ठावानों का ऐन समय में टिकट कट जाता है. जो सालो साल से पार्टी के लिए काम करते आ रहे हैं तथा जिन्हें इस बार टिकट के लिए प्रबल दावेदार भी माना जा रहा है. खास बात यह भी है कि इसमें से कई प्रबल दावेदारों को पार्टी के वरिष्ठ नेताओं द्बारा ही कुछ समय पहले टिकट मिलने का आश्वासन दिया गया था. जिस पर भरोसा करते हुए वे काम पर भी लग गये थे. लेकिन पता चला है कि नगर परिषद के चुनावी नतीजों को देखते हुए अब सभी राजनीतिक दल एक बार फिर नये सिरे से मनपा चुनाव के लिए सर्वे करा रहे हैं. जिसके चलते ऐन नामांकन प्रक्रिया के दौरान मनपा चुनाव की राजनीति में बडा उलट फेर दिखाई देने के पूरे आसार भी बन रहे हैं.
कौन है ये लोग, कहां से आते हैं ?
– सर्वे टीमों को लेकर लोगबाग पूछ रहे सवाल
यहां यह विशेष उल्लेखनीय है कि हर बार चुनाव पूर्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट जारी करते समय दावा किया जाता है कि इस सर्वेक्षण हेतु लोगों के बीच जाकर उनकी राय जानी गई औैर लोगों के साथ रायशुमारी के बाद सर्वे की रिपोर्ट तैयार करने के साथ ही आवश्यक तथ्यात्मक आंकडे भी जुटाए गये. परंतु ऐसी रिपोर्ट को देखने के बाद आम नागरिकोंं में से अधिकांश का यही कहना रहता है कि उनके पास तो कोई भी व्यक्ति ऐसे किसी सर्वे के लिए नहीं आया था और चुनाव तथा राजनीतिक स्थिति से संबंधित सवालों को लेकर उनसे कभी किसी ने कोई राय नहीं ली. ऐसे में यह सवाल उठता है कि आखिर सर्वे टीमों में कौन लोग शामिल होते है, वे कहां से आते हैं और किन लोगों से मुलाकात व बातचीत करते हुए अपनी रिपोर्ट बनाते है. जिसके आधार पर किसी भी क्षेत्र अथवा प्रत्याशी के राजनीतिक भविष्य का फैसला राजनीतिक दलों द्बारा कर दिया जाता है.
मनपा चुनाव के लिए पहले भी हो चुका था सर्वे
याद रहे कि जनवरी माह में अमरावती महानगरपालिका से चुनाव होंगे. यह बात पहले से तय थी. जिसके चलते लगभग सभी राजनीतिक दलों विशेषकर सत्ताधारी दल भाजपा ने अक्तूबर- नवंबर माह के दौरान ही मनपा चुनाव के लिहाज से सर्वे करवा लिया था. जिसके आधार पर उस समय जीत के प्रबल दावेदार रहने के साथ ही टिकट हेतु इच्छुक रहनेवाले कुछ लोगों को काम पर लग जाने हेतु वरिष्ठों की ओर से हरी झंडी भी दे दी गई थी. जिसके चलते ऐसे लोगों ने अपने-अपने प्रभागों में अपना जनसंपर्क बढाने के साथ ही अपना प्रचार करने भी शुरू कर दिया था. परंतु जारी दिसंबर माह के दौरान हुए नगरपालिका चुनाव के नतीजे घोषित होने के साथ ही राजनीति में अचानक बदलाव वाली स्थिति देखी जा रही है. क्योंकि कई निकायों में चुनाव परिणाम बेहद अनपेक्षित रहे. जिसके चलते अब मनपा चुनाव के लिए रणनीति में बदलाव किया जा रहा है. खास बात यह है कि इस समय मनपा चुनाव की नामांकन प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी है और टिकट हेतु इच्छुुक दावेदारों सहित आम नागरिकों द्बारा विभिन्न दलों की ओर से उनके अधिकृत प्रत्याशी घोषित किए जाने की प्रतीक्षा की जा रही है. वही दूसरी ओर सभी राजनीतिक दल इस समय एक बार फिर सर्वे कराने के काम में जुटे हुए है तथा सर्वे रिपोर्ट के आधार पर ही अपने प्रत्याशियों के नाम तय करने की रणनीति पर काम कर रहे.
सौ- पचास वोटों के फर्क से होता है हार- जीत का फैसला, सर्वे की जरूरत ही क्या?
ज्ञात रहे कि स्थानीय निकायों के चुनाव में महज कुछ हजार मतदाताओं द्बारा वार्ड अथवा प्रभाग स्तर पर वोटिंग की जाती है और अक्सर ही सौ-पचास वोट इधर से उधर हो जाने पर हार-जीत का फैसला बदल जाता है. साथ ही अंतिम समय तक यह तय नहीं रहता कि नागरिकों का रूझान किस ओर है. क्योंकि निकाय चुनाव में राजनीतिक विचारधारा का कोई महत्व नहीं रहता. बल्कि स्थानीय मुद्दों और समस्याओं के आधार पर ही निकाय चुनाव लडे जाते हैं. ऐसे मेें किसी अन्य शहर से आकर निकाय चुनाव जैसे राजनीतिक इवेंट के लिए सर्वे करनेवाली 5 से 7 लोगों की टीम इस आधार पर सर्वे करते हुए अपनी रिपोर्ट तय करती होगी. इसे लेकर संदेह व्यक्त किया जा सकता है.
नप चुनाव के बाद बदले-बदले से दिख रहे सरकार
ध्यान देनेवाली बात यह है कि अमरावती शहर में राजनीतिक व सामाजिक स्तर पर अपनी अच्छी खासी पहचान रखनेवाले कुछ दिग्गजों ने विगत एक डेढ माह से मनपा चुनाव लडने की तैयारी करनी शुरू कर दी थी. साथ ही उन्हें उनके प्रभागों से उनकी पार्टी का दावेदार भी तय माना जा रहा था. क्योंकि उन्हें उनकी पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने अलग-अलग मौको पर पार्टी की टिकट के लिए ‘पक्का शब्द’ दिया था. लेकिन जैसे ही नगर परिषद व नगर पंचायत चुनाव के नतीजे घोषित हुए , वैसे ही पहले दिए गये सभी ‘शब्द’ व पक्के वादे हवा हवाई हो गये. क्योंकि अब मनपा क्षेत्र में सभी प्रमुख दलों ने नये सिरे से सर्वे कराना शुरू कर दिया है और अब इस नये सर्वे की रिपोर्ट के आधार पर प्रत्याशियों के नामों का फैसला होगा. पता चला है कि इसकी वजह से कुछ प्रमुख राजनीतिक दलों के कुछ प्रमुख दावेदारों को झटका लग सकता है. क्योंकि नई स्थितियों के बीच कराए जानेवाले सर्वे की रिपोर्ट उनके खिलाफ जाती दिखाई दे रही है. जिसके चलते अब ऐन समय पर ऐसे कुछ प्रमुख दावेदारों का ‘खेल’ बिगड सकता है और उन्हें मैदान से बाहर ही होना पड सकता है. जिसकी वजह से ऐसे दावेदारों द्बारा विगत कई वर्षो से अपनी- अपनी पार्टियों के लिए किए जानेवाले काम भी नाकाफी साबित हो सकते है. साथ ही साथ विगत डेढ दो माह से उनके द्बारा चुनाव लडने हेतु की जा रही मेहनत भी व्यर्थ जा सकती है.

 

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