संपादकीय

शिक्षा के संग संस्कार का दाता शिक्षक

प्रतिवर्ष ५ सितंबर को शिक्षक दिन मनाया जाता है. शिक्षको के प्रति सम्मान अभिव्यक्त करनेवाला यह दिन है. किसी के भी जीवन में दिशा देने के लिए जितने महत्वपूर्ण माता-पिता है. उससे भी अधिक महत्व शिक्षक का है. शिक्षक यह केवल किताबी ज्ञान ही नहीं देता बल्कि एक संस्कारक्षम नागरिक बनने में भी योगदान देता है. देश की शिक्षा व्यवस्था में आरंभ से ही संस्कार को प्रधानता दी गई है. शाला आरंभ होते ही विद्यार्थियों को कक्षा में जाने से पूर्व प्रार्थना विधि से गुजरना पड़ता है. प्रार्थना यह हमारे संस्कार का महत्वपूर्ण अंग है. इस प्रार्थनाकाल में जहां राष्ट्रभक्ति का संदेश दिया जाता है. वहीं पर परस्पर सद्भाव का सबक भी दिया जाता है. कक्षा में पहुंचने के बाद विद्यार्थी को जीवन में आवश्यक शिक्षा का ज्ञान दिया जाता है. इन सभी कार्यो में शिक्षक की भूमिका महत्वपूर्ण रहती है. यही वजह है कि सामाजिक जीवन में भी शिक्षको का विशेष महत्व रहा है. यह पाया गया है कि राष्ट्र निर्माण में अहम भूमिका निभानेवाले अनेक मान्यवर आरंभिक दौर में शिक्षक के रूप में ही कार्यरत रहे है. भारतीय संस्कृति में पहले शिक्षा प्रणाली में गुरूकुल का महत्व था. अनेक विद्यार्थी एक आश्रम में रहकर शिक्षा व संस्कार दोनों ग्रहण करते थे. यहां शिक्षक पालक की भूमिका में योगदान देता था. विद्यार्थी भी उसे अपने पालक के रूप में ही स्वीकार करते थे व उनकी आज्ञा का पालन करते थे. बेशक विद्यार्थी किसी संपन्न घराने से हो या उच्च पदस्थ का पुत्र हो. शिक्षक यानी गुरू के प्रति उसका आदरभाव इन सब बातों से ऊपर रहता था.यहां वह सर्वसामान्य विद्यार्थी के रूप में ही शिक्षा हासिल करता था. रामायण में उल्लेख है कि ‘गुरू गृह पढन गये रघुराई, अल्पकाल शिक्षा तेही पाईÓ स्वयं भगवान ने भी शिक्षा पाने के लिए गुरू की आज्ञा का पालन किया है. इतनी उन्नत शिक्षा प्रणाली इस देश की रही है.वर्तमान में कुछ विसंगतियोंं ने शिक्षा व्यवस्था को प्रभावित किया है. इसमें सबसे मुख्य कारण शिक्षको के प्रति विद्यार्थियों का घटता आदरभाव भी एक है. इसके लिए शिक्षको को दोष देना उचित नहीं माना जायेगा. क्योंकि अनेक शिक्षा संस्थान विद्यार्थियों को प्रवेश देने के लिए भरपूर डोनेशन वसूल करते है. जिस शाला में विद्यार्थी पैसे देकर प्रवेश प्राप्त करेगा, उसके मन में यह भाव जागना निश्चित रूप से स्वाभाविक है कि उसने यह प्रवेश खरीदा है. खरीदी गई वस्तु के प्रति एक अधिकार भाव मन में जागृत होता है. यही कारण है कि वर्तमान पीढ़ी में शिक्षको के प्रति छात्रों में अनास्था बढ़ रही है. शालाओं में जारी डोनेशन प्रणाली से शिक्षा भी प्रभावित होती दिखाई दे रही है. क्योंकि यहां पर प्रवेश गुणवत्ता के आधार पर न होकर धन के आधार पर होता है. यही कारण है कि शिक्षको को भी शिक्षा देने का जो उत्साह रहना चाहिए वह उत्साह नही रह पाता. इस हालत में अति आवश्यक है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली में योग्य सुधार किए जाए.
अनेक शिक्षक इन तमाम विसंगतियों के बावजूद विद्यार्थियों के प्रति अपने दायित्व को समझते हुए उन्हें शिक्षित करने के लिए पूरा जोर लगा देते है. यही कारण है कि वे लोग समाज की नजर में हरदम सम्मानित रहते है. उनकी यह भावना उन्हें आगे बढ़ाने में भी सहायक होती है. इसीलिए शिक्षक दिन का महत्व आज भी कायम है. अनेक विद्यार्थी जो गुरूजनों के प्रति आदरभाव रखते है. वे शिक्षक दिन का महत्व समझते हुए गुरू के प्रति अपना आदरभाव व्यक्त करते है. शिक्षको का महत्व कायम रखने के लिए सरकार को भी योग्य पहल करनी होगी. वर्तमान में पाया जा रहा है कि शिक्षक जो गुरू के गरिमामय स्थान पर आसीन था. आज उसे शिक्षणसेवक बनने की स्थिति में पहुंचना पड़ रहा है. अनेक शालाओं में पाया जाता है कि अस्थायी तौर पर शिक्षक की डिग्री (बीएड, डीएड) प्राप्त उम्मीदवारों को कार्यरत किया जाता है. उन्हें जो शिक्षक का सम्मान मिलना चाहिए था वह नहीं मिल पाता. इतना ही नहीं कई स्थानों पर शिक्षा समितियों के प्रबंधन द्वारा इन अस्थायी शिक्षको से अधिक वेतन देने के कागजात बनाए जाते है. लेकिन उन्हें सीमित वेतन ही दिया जाता है. शिक्षा जैसे क्षेत्र में जब किसी शिक्षक को इस तरह का शोषण बर्दाश्त करना पड़े तो निश्चित रूप से उसके मन में शिक्षकी पेशे को लेकर आरंभ में जो भाव थे. वे कायम नहीं रह पाते. संबंधित शिक्षक केवल औपचारिक शिक्षा तक ही अपने आपको सीमित कर देता है. इसका असर विद्यार्थियों पर भी होता है. शिक्षा के साथ साथ जो संस्कारों की परंपरा थी वह दिनों दिन नष्ट होने लगी है. इस विषय में न केवल शिक्षाविदो को चिंतन करना चाहिए बल्कि समाज को भी इस बारे में सोचना आवश्यक है. केवल औपचारिक रूप से शिक्षक दिन मना लेना यह इस समस्या का हल नहीं है.
कुल मिलाकर शिक्षा की प्राचीन गरिमा व वर्तमान स्थिति में भारी अंतर है. इस तफावत को पूरी तरह तो दूर नहीं किया जा सकता. क्योंकि तब की और अब की स्थितियों में भारी अंतर है. पहले शिक्षक की भूमिका एक पालक के रूप में सामने आयी थी. लेकिन अब शिक्षक के कार्यक्षेत्र में ही कई बार विद्यार्थियों व पालको का हस्तक्षेप बढऩे लगा है. परिणाम स्वरूप विद्यार्थियो को ज्ञान वितरण करते समय शिक्षकों का भी मनोबल प्रभावित होता है. शिक्षा एवं संस्कार यह समय की आवश्यकता है. इसे और प्रभावी बनाने के लिए जरूरी है कि हर कोई शिक्षा की गरिमा को पहचाने एवं शिक्षा तथा ज्ञान देनेवाले गुरू के प्रति सम्मान भाव रखे. भारतीय संस्कृति में गुरू का महत्व आरंभ से ही रहा है. संतों के अनुसार यदि भगवान एवं गुरू दोनों सामने खड़े है तो गुरू का ही चरणस्पर्श करना चाहिए. क्योंकि गुरू प्रकारांतर में शिक्षक ही हमें भगवान के विषय में अवगत कराता है. बहरहाल शिक्षक दिन का औचित्य साधकर सरकार को चाहिए कि शिक्षको की गरिमा कायम रहे. इस तरह के सुधार शिक्षा व्यवस्था में की जाए.

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