संपादकीय

प्रवासी श्रमिको को मिले योग्य सहायता

लॉकडाऊन के दौरान अपने आपको असुरक्षित समझकर कार्यक्षेत्र से स्वयं के जन्मस्थानों के लिए पैदल ही रवाना हुए अनेक श्रमजीवियों (मजदूरों)को न केवल कठिनाईयों से गुजरना पड़ा बल्कि अनेक मजदूरों को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ा. विशेष यह मजदूरों की इस व्यथा को हर किसी ने जाना समझा लेकिन उन्हें इसका कोई आधार नहीं मिल पाया है. भारत के लगभग सभी जिले में प्रवासी मजदूर कार्यरत है.विशेषकर जिन जिलों में उद्योगों की प्रचूरता है.वहां पर अनेक मजदूरों ने न केवल अपनी आजीविका आरंभ की बल्कि स्थायी तौर पर बस भी गये. बावजूद इसके उनका अपने पैतृक गांव से संबंध कायम रहा है. इस संबंध को कायम रखने के पीछे यह मानसिकता यही थी कि यदि कार्यक्षेत्र में कोई बाधा आती है तो अपने पैतृक गांव लौटकर किसी तरह गुजारा किया जा सकता है. मार्च माह में लॉकडाऊन घोषित करने के बाद हर श्रमिक की हालत दयनीय हो गई थी. नतीजतन ऐसे अनेक मजदूरों ने अपने गांव लौटने का निर्णय लिया. लेकिन रेल, बस तथा हवाई सेवा सभी बंद रहने के कारण मजदूरों को पैदल ही अपने गांव निकलना पड़ा. सैकड़ों किमी की दूरी पैदल नापते हुए निकले इन मजदूरों में से अनेक की मृत्यु संघर्षभरी यात्रा के दौरान हो गई. सारा देश के मन में इन श्रमिकों के प्रति सहानुभूति निर्माण हो गई थी. लेकिन राजनीतिक दल मजदूरों की इस व्यथा को हल नहीं कर पाए बल्कि उन्हें अकेला छोड़ दिया गया. यही कारण है कि अनेक मजदूर स्थितियों से जुझते हुए अपने घरों की ओर रवाना होने लगे थे. वातावरण, पैदल चलने के कारण आयी थकान व स्वास्थ्य की दुर्दशा के कारण कई मजदूरों की दर्दनाक मौत हो गई थी. औरंगाबाद के १६ मई को मालगाड़ी के नीचे आ जाने के कारण रेल पटरियों पर आराम कर रहे महिला पुरूष श्रमिको की दर्दनाक मृत्यु हो गई. स्पष्ट है लॉकडाऊन के कारण कई लोगों को कठिनाई का सामना करना पड़ा. सरकार की मजबूरी थी कि वह इन लोगों को कोई सहयोग नहीं दे पा रही थी. हालाकि बार-बार घोषणा की जा रही थी कि श्रमिक जहां है वहीं रूके रहे. उनकी आवश्यकता की पूर्ति स्वयं सरकार करेगी. बावजूद इसके मजदूरों में जो असुरक्षा की भावना घर कर गई थी. उसके चलते मजदूरों ने पलायन करना ही उचित समझा. निश्चित रूप से संबंधित क्षेत्र की सरकारे उन्हें योग्य सहायता नहीं कर पायी. इसका असर यह हुआ कि राह में ही अनेक श्रमिकों ने दम तोड दिया. इस बारे में राजनीतिक स्तर पर चर्चा जारी रहेगी. सरकार भी जानती है कि प्रवासी मजदूरों को रोका नहीं जा सकता.उन्हें रोकना है तो उनके लिए अनेक सुविधाए देना जरूरी था. महाराष्ट्र में प्रवासी मजदूरों की संख्या बड़े पैमाने पर रही है. यही कारण है कि जब लॉकडाऊन घोषित हुआ श्रमिक वर्ग भी अपने गांव के लिए जत्थे के स्वरूप में पैदल यात्रा करता हुआ दिखाई दिया. इन सब बातों की जानकारी सरकार के पास रहना अति आवश्यक थी. लेकिन सदन में एक सवाल के जवाब में सरकार ने स्पष्ट कहा कि देशभर में प्रांत के अनुसार कितने मजदूर कार्यरत है, कितने प्रवासी मजदूरों की मृत्यु हो गई. विपक्ष द्वारा इस बारे में प्रश्न किया गया था. लेकिन सरकार ने अनभिज्ञता दिखाई.
देश में अनेक प्रवासी मजदूर है जो रोजगार की तलाश में विभिन्न प्रांतों में जाकर बस गये है. उन्हें इस बात का जरा भी इल्म नहीं था कि लॉकडाऊन जैसी स्थिति निर्माण होगी तथा उन्हें महिनों घर बैठना पड़ेगा. इसी भय से सभी श्रमिक परिवार जत्थे के तौर पर अपने प्रांतों की ओर रवाना हुए. श्रमिको को इस बात को लेकर कोई शिकायत भी नहीं थी. लेकिन अब संगठित क्षेत्र हो या असंगठित सभी क्षेत्र के लोगों को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा. इस हालत में जो श्रमिक या कर्मचारी अपने सेवा से वंचित हुए है. उन्हें क्या मुआवजा मिल पायेगा. हकीकत तो यह है कि देश में लॉकडाऊन के कारण अनेक लोगों ने अपना रोजगार खोया है. आर्थिक रूप से वह पहले से ही विपन्न थे. कुछ पूंजी जो हाथ में थी वह लॉकडाऊन के दौरान विभिन्न मामलों में खर्च हुई. ऐसी हालत में श्रमिक वर्ग के सामने अब केवल संकट का दौर ही नियति बन गया है. हालाकि सरकार गवाह है कि भ्रामक जानकारी के चलते प्रवासी मजदूरों ने पलायन किया. बहरहाल यह तो स्पष्ट है कि अनेक प्रवासी मजदूरों को पैदल ही अपने घर आना पड़ा. इसमें कुछ की मृत्यु हो गई.सरकार की ओर से यदि उन्हें थोड़ी सहायता भी मिल जाती है तो निश्चित रूप से उन्हें भारी आधार मिलता. सरकार को चाहिए कि वह प्रवासी मजदूरों की पीड़ा समझे. उन्हें राहत के लिए योग्य सहायता भी दे. अत: सरकार को चाहिए कि वह इस बात का सर्वेक्षण करे कि संगठित व असंगठित क्षेत्र के कितने श्रमिक रोजगार से वंचित हुए है. ताकि उन्हें योग्य मुआवजा मिल सके तथा उनके जीवन में जो संघर्षमय स्थिति निर्माण हुई है. उससे उन्हें राहत मिले. क्योंकि यह संकटकाल है इसमें एक दूसरे का हाथ बटाना जरूरी है.

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