किसानों की पीड़ा की हो समीक्षा
राजधानी दिल्ली की सभी सीमाओं पर किसानों द्वारा विगत ५ दिनों से जारी आंदोलन की फलश्रुति यह रही है कि केन्द्र सरकार उनसे चर्चा करने को सहमत है. लेकिन यह चर्चा सशर्त होने के कारण किसानों ने उसे स्वीकार नहीं किया है. सरकार चाहती है कि किसान दिल्ली में बुराडी मैदान पर एकत्र हो ताकि योग्य चर्चा हो सके. लेकिन किसान इस बात पर सहमत नहीं है. वे चाहते है कि चर्चा के लिए वे तैयार है. लेकिन किसी विशेष जगह पर किसानों को आने की शर्त उन्हें स्वीकार नहीं है. किसान विधेयक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित केन्द्र सरकार किसानों के हित वाला कानून बता रही है. जबकि किसानों का मानना हैकि इस कानून से कृषि व्यवस्था ही चरमरा जायेगी. स्पष्ट है जब दो अलग-अलग राय निर्मित हो रही है तो विधेयक के प्रावधानों की समीक्षा की जाए. किस रूप में यह विधेयक किसानों के लिए हितकारी है. यह समझाने का सरकार प्रयास करे. सरकार का यह दावा कि विपक्षी दल किसानों को इस आंदोलन के लिए उकसा रहे है. जबकि हकीकत यह है कि जिस व्यक्ति को पीड़ा भुगतनी पड़ती है. उसका दर्द वही समझ सकता है. किसानों की वर्तमान में जो हालत है. वह अत्यंत चिंताजनक है. देशभर को अन्न की आपूर्ति करनेवाला अन्नदाता व्यक्ति के जीवन में दो समय के भोजन के लिए भी मोहताज है. इस हालत में किसान क्यों पहुंचा इस बात की भी समीक्षा होना आवश्यक है. विलासिता की वस्तुओं में एकाएक सैकड़ों रूपये की महंगाई हो जाती है तो भी कोई इसका विरोध नहीं करता. लेकिन जीवनावश्यक वस्तु अनाज,सब्जियां,फल में थोड़ी भी दरवृध्दि होती है तो सर्वत्र उसकी चर्चा गूंज उठती है.सभी सरकारे किसानों के प्रति अपनी संवेदना तो व्यक्त करती है. लेकिन जब किसान संयुक्त रूप से एकजुट होकर दिल्ली पहुंचना चाहते उन्हे कूच नहीं करने दिया जा रहा है.बेशक सरकार चाहती है कि किसानों को दिल्ली में ना आने दिया जाए तो सरकार को यह करना चाहिए कि वह स्वयं किसानों के पास पहुंचकर उनकी मांगों को सुने. किसानों ने जब विधेयक के मुद्दे को अपने जीवन मरण का प्रश्न बना लिया है तो सरकार को भी उसकी गंभीरता को समझना आवश्यक है. किसानों की पीड़ा किसी से छिपी नहीं है.
आज तक चाहे जो भी सरकार हो किसानों की पीड़ा समझे बिना उनके बारे में निर्णय लेती है. इसमें किसानों को अपना अहित नजर आ रहा है. निश्चित रूप से किसानों का विश्वास अब यंत्रणा पर नहीं है. भूमिपुत्र जमीन को ऊपजाऊ बनाकर जिस तरह फसलें उत्पादित करता है उसी तरह उसकी देखभाल करता है. यह सारी प्रक्रिया करते समय उसे भारी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है. बावजूद इसके यदि उसे योग्य समर्थन मूल्य नहीं मिल पाता है. किसानों द्वारा हरदम यह मांग की जाती रही है कि उन्हें सहायता से अधिक योग्य समर्थन मूल्य दिया जाए. लेकिन आपदा की स्थिति में सरकार की ओर से उन्हें सहायता दी जाती है. जो कि ऊंट के मुंह में जीरा साबित होती है. यदि सरकार की ओर से किसानों को उनके उत्पादित फसलों का योग्य समर्थन मूल्य दे तो उन्हेें किसी पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं. इस बारे में विधानसभा में अनेक बार नेतागण यह बात रख चुके है. लेकिन समर्थन मूल्य मिलना तो दूर उन्हें लागत के अनुसार कीमत भी नहीं मिल पाती है. इससे किसानों की आर्थिक दशा हर वर्ष खराब होने लगी है.विशेषकर भारत में अधिकांश खेती मौसम पर आधारित है. यदि योग्य बरसात हुई तो फसलें अच्छी रह सकती है. लेकिन कम बरसात रही या अधिक बरसात रही तो वह फसलों को बरबाद कर देती है. परिणामस्वरूप किसानों का जीवन दयनीय हो गया है. सरकार का दावा भले ही यह है कि वह किसानों के हित में कार्य कर रही है. लेकिन किसान इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे है. सरकार को चाहिए कि विधेयक के लाभ व किसानों के हित मेें विधेयक होने की बात को चर्चा व विभिन्न माध्यमों से किसानों को अवगत कराया जाए. बहरहाल किसानों ने अपनी मांगे पूरी होने तक अपना आंदोलन जारी रखने का संकल्प लिया है.
अब चूकि सरकार द्वारा ३ दिसंबर को किसानों से चर्चा करने की तिथि नजदीक आ गई है. सरकार एवं किसान दोनों को चाहिए कि वे इस चर्चा को सार्थक बनाने की दिशा में प्रयास करे. बेशक सरकार का दावा है कि वह गंगाजल की तरह पवित्र नियत से कार्य कर रही है. ऐसे में किसानों का आंदोलन व विगत ५ दिनों से किसानों का आंदोलन में डटा रहने को लेकर आम नागरिको में भी चिंता है. इसके लिए सरकार को चाहिए कि वह स्वयं योग्य पहल कर किसानों की बातें सुने. कुल मिलाकर किसानों का आंदोलन अपनी जगह योग्य है. सरकार भले ही बिल को किसानों के हित वाला कह रही है. इस बिल की समीक्षा की जानी चाहिए. दोनों पक्षो की ओर से चर्चा कर योग्य हल निकाला जाना जरूरी है. अन्यथा बढ़ती ठंड, राजधानी दिल्ली में जारी कोरोना का कहर कहीं किसानों के लिए मुसीबत का सबब न बन जाए.